Saturday, March 12, 2022

लो सखी, फिर आया मधुमास (Lo sakhi fir aaya madhumas)

"लो सखी, फिर आया मधुमास"

    

सरसो के पीले फूल खिले,

बागों में कलियां मुस्काई,

चलने लगी शीतल पुरवाई,

सूरज ने किरणे फैलाई,

गांव-गांव क्या शहर-शहर के,

जगा हृदय में नव उल्लास,

लो सखी, फिर आया मधुमास...

हां सखी, फिर आया मधुमास...


नए-नए कोंपल फूटे,

हर तरुवर पर यौवनता आया,

रंग-बिरंगे सुमन खिले,

चहुं ओर, हरियाली छाया,

वसुधा के कण-कण में जागा,

नव जीवन का नवल आश,

लो सखी, फिर आया मधुमास…

हां सखी, फिर आया मधुमास...


सर्द निशा का करके त्याग,

मन में लिए नया अनुराग,

है कूक रही कोयल काली,

चहक रही है डाली-डाली,

इस वसुधा के वन-वन में,

घोल रही है मधुर मिठास,

लो सखी, फिर आया मधुमास...

हां सखी, फिर आया मधुमास...

                   

मधुमासी लगे गुंजन करने,

दौड़े पुष्पों से, मधु चुराने,

रंग-बिरंगी उड़ती तितलियां,

डाल-डाल पर लगी मंडराने,

जैसे इस अरुणोदय का,

वर्षों से हो मन में आश,

लो सखी, फिर आया मधुमास...

हां सखी, फिर आया मधुमास...


खिल गई अतरंगी कलियां,

बगिया बेला-सी महक उठी,

धरा की अदभुत श्रृंगार देख,

मानो प्रकृति भी चहक उठी,

करने को ऋतुराज का स्वागत,

धरती ने पहना हरित लिबास,

लो सखी, फिर आया मधुमास...

हां सखी, फिर आया मधुमास...


©स्वरचित

R.Dheeraj Gupta

(5 February, 2022)

Tuesday, August 10, 2021

लेखांकन का इतिहास (History of Accountancy) by RD Gupta

लेखांकन का इतिहास (History of Accountancy):

  1. भारत, मिश्र, बेबीलोनिया में प्राप्त अभिलेखों तथा ग्रंथों में हिसाब किताब रखने की क्रिया का वर्णन मिलता है।
  2. भारत में वैदिकयुगीन लेखांकन का वर्णन "मनुसंहिता" में मिलता है।
  3. मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त शिलालेखों पर निर्माण लागत का लेखा मिलता है।
  4. कौटिल्य द्वारा लिखित पुस्तक "अर्थशास्त्र" में भी हिसाब-किताब रखने की विधि का वर्णन किया गया है।
  5. आधुनिक पुस्तपालन प्रणाली का जन्म 1494 ई. में इटली के वेनिस नामक शहर में हुआ था
  6. इस प्रणाली के जन्मदाता प्रसिद्ध गणितज्ञ और दर्शनशास्त्री लुकास पैसियोली (Lucas Pacioli) थे, इसलिए लुकास पैसियोली को लेखांकन के पिता के रूप में जाना जाता है।
  7. लुकास पैसियोली ने 1494 ई. में "डी कंप्यूटिसेट स्क्रिप्चरिस" (De Computiset Scripturis) नामक पुस्तक लिखी थी जिसमें सर्वप्रथम उन्होंने ही "दोहरा लेखा प्रणाली" (Double Entry System) के सिद्धांतों और नियमों के बारे में बताया गया था।
  8. यह पुस्तक मूल रूप से बीजगणित पर लिखी गई थी और इसी की एक अध्याय में लेखांकन के बारे में बताया गया था।
  9. यह पुस्तक मूलतः लैटिन भाषा में लिखी गई थी।
  10. 1543 में "ह्यूग ओल्ड कैसिल" (Huge Old Castle) ने इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद किया।
  11. इसी पुस्तक के आधार पर "एडवर्ड जॉन्स" (Edward Jones) ने 1785 ई. में "बुक कीपिंग की अंग्रेजी प्रणाली" (English System of Book-keeping) नामक पुस्तक लिखी।
  12. 17वीं, 18वीं, 19वीं तथा 20वीं शताब्दी में व्यापार के विकास के साथ-साथ पुस्तपालन तथा लेखांकन के सिद्धांतों और नियमों में परिवर्तन हुए।
  13. इन परिवर्तनों के फलस्वरुप इसमें लागत लेखांकन, प्रबंधकीय लेखांकन, कर लेखांकन आदि का भी जन्म और विकास हुआ। इसके साथ-साथ अंकेक्षण की प्रणाली भी विकसित होती गई।
  14. आधुनिक समय में पुस्तपालन की समाप्ति के बाद लेखांकन का कार्य आरंभ होता है तथा लेखांकन की समाप्ति के बाद अंकेक्षण की क्रिया प्रारंभ होती है।
  15. भारत के अंग्रेजी शासनकाल में यह प्रणाली हमारे देश में आई और तब से निरंतर इसमें विकास और शोध के कार्य चल रहे हैं।

By- RD Gupta

Wednesday, October 28, 2020

सेवा से आप क्या समझते हैं ? सेवा की विशेषताएं बताइए। भारत में सेवा बाजार के बढ़ने के क्या कारण हैं ? What do you understand by Service? Describe the features of the Service. What are the reasons for the growth of the Services Market in India ?

प्रश्न: सेवा से आप क्या समझते हैं ? सेवा की विशेषताएं बताइए। भारत में सेवा बाजार के बढ़ने के क्या कारण हैं ?

(What do you understand by Service? Describe the features of the Service. What are the reasons for the growth of the Services Market in India ?)


उत्तर: सेवा (Service)- सामान्य शब्दों में सेवा से तात्पर्य उन अमूर्त क्रियाओं से है जो प्रतिफल के बदले एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के लिए की जाती है जिससे उस दूसरे व्यक्ति को संतुष्टि, आराम या सुविधा प्राप्त होती है। जैसे- कूलर, फ्रिज, पंखे, कार आदि की मरम्मत, बैंक लॉकर, पर्यटन, परिवहन, संचार, डॉक्टर, हेल्थ क्लीनिक, होटल, परिवहन शिक्षा, प्रशिक्षण, बैंकिंग सेवा इत्यादि सेवाओं के उदाहरण हैं।


परिभाषाएं (Definitions)- की कुछ परिभाषाएं निम्न है-

  1. अमेरिकी विपणन संघ के अनुसार, "सेवाएं वे क्रियाएं, लाभ या संतुष्टि हैं, जो विक्रय हेतु प्रस्तुत की जाती है अथवा माल के साथ उपलब्ध की जाती हैं।"
  2. बेसम के अनुसार, "उपभोक्ता के लिए, सेवाएं विक्रय हेतु प्रस्तावित वे क्रियाएं हैं, जो मूल्यवान लाभ या संतुष्टि प्रदान करती हैं, तथा वे क्रियाएं हैं जिन्हें व स्वयं अपने आप नहीं कर सकता है या अपने आप नहीं करने का निश्चय करता है।"
  3. कुर्ज एवं बून अनुसार, "सेवाएं वे अमूर्त क्रियाएं हैं, जो चुने हुए बाजार क्षेत्रों में कुशलतापूर्वक विकसित एवं वितरित करने पर औद्योगिक एवं उपभोक्ता उपयोगकर्ताओं की आवश्यकताओं को संतुष्ट करती हैं।"
  4. भारतीय उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के अनुसार, "सेवा से तात्पर्य किसी भी प्रकार की सेवा से है, जो संभाव्य उपभोक्ताओं को उपलब्ध की जाती हैं तथा इसमें बैंकिंग, वित्तीय, बीमा, परिवहन, अभिक्रिया, विद्युत या अन्य ऊर्जा की आपूर्ति, भोजन एवं आवास अथवा दोनों, मनोरंजन, आमोद-प्रमोद, समाचारों तथा अन्य सूचनाओं को प्रदान करने संबंधी सेवाएं भी सम्मिलित हैं, किंतु निःशुल्क अथवा व्यक्तिगत अनुबंध के अंतर्गत प्रदान की जाने वाली सेवाओं को इन में सम्मिलित नहीं किया जाता है।"


निष्कर्ष (Conclusion)- निष्कर्ष रूप में, सेवा वह अमूर्त क्रिया या क्रियाओं की श्रृंखला है, जो किसी व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को मूल्य के बदले प्रस्तुत की जाती है ताकि उस दूसरे व्यक्ति की समस्या का समाधान हो सके या उसे सुविधा या संतुष्टि प्राप्त हो सके। सेवा किसी उत्पाद के साथ या अलग से स्वतंत्र रूप से भी प्रदान की जा सकती है।


सेवा की विशेषताएं (Characteristics of Service)- उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर सेवा की निम्नलिखित विशेषताएं होती है:


  1. अदृश्यता (Intangibility)- सेवा अदृश्यता का आशय यह है कि सेवा को क्रय करने से पूर्व देखा, चखा, महसूस, सुना या सूंघा नहीं जा सकता। क्रय के पश्चात वे सेवा के फल को महसूस कर सकते हैं। जैसे- एक डॉक्टर के पास लोग स्वास्थ्य परीक्षण या रोग निदान के लिए जाते हैं या किसी भी प्रकार की बीमा के लिए भुगतान करते हैं या कोई कॉस्मेटिक सर्जरी कराते हैं, तो बिना क्रय किए उसका रिजल्ट दिखाई नहीं दे सकता है।
  2. पृथक न करने योग्य (Inseparability)- अनेक सेवाएं, जिनके स्रोतों से वे प्रदान की जाती हैं, या उनके द्वारा जो सेवा से लाभान्वित होते हैं, अविभेद्य होती हैं अर्थात उस व्यक्ति, मशीन से उस सेवा को अलग नहीं किया जा सकता है। जैसे- एक डॉक्टर के कौशल को उससे अलग नहीं किया जा सकता है, एक अकाउंटेंट जो वित्तीय सेवाएं प्रदान करता है, उससे अलग नहीं किया जा सकता है। अतः सेवा अविभेद्य का आशय है कि सेवा, सेवा प्रदान करने वालों से अलग नहीं हो सकती, चाहे प्रदायक मानव हो या मशीन।
  3. भिन्नता (Heterogeneity)- सेवा की एक विशेषता यह भी है कि इसका प्रमाणपीकरण नहीं हो सकता है। एक ही प्रकार की सेवा एक ही ग्राहक को सदैव समान स्तर कि प्रदान करना कठिन है। इतना ही नहीं, कोई एक ही प्रकार की सेवा सभी ग्राहकों को एक ही गुणवत्ता या प्रमाप में प्रदान करना भी लगभग असंभव होता है।
  4. नाशवान/असंग्रहणीय (Perishable)- सेवाएं नाशवान प्रकृति की होती हैं जिसे संग्रह करके नहीं रखा जा सकता है। अतः जब इसकी आवश्यकता होती है, तभी सेवा का निष्पादन (उत्पादन) करना पड़ता है। उदाहरण के लिए हवाई यात्रा सेवा प्रदान करने वाली संस्था यात्री टिकट कभी भी बेच सकती है, किंतु उसे हवाई सेवा का उत्पादन तभी करना पड़ेगा जब यात्री की यात्रा का समय आएगा। सेवा का संग्रह नहीं कर सकने के कारण ही जब सेवा की मांग अधिक होती है तो सेवा की किस्म को बनाए रखना कठिन होता है, किंतु जब सेवा की मांग घट जाती है तो श्रेष्ठतम सेवा भी व्यर्थ चली जाती है। इतना ही नहीं यदि ग्राहक सेवा को पहले से ही 'बुक' करवा लेता है और उस सेवा का उपयोग नहीं कर पाता है तो भी सेवा का संचय या संग्रह नहीं हो पाता है। 'बुक' करने के बाद सेवा का समय पर उपयोग नही करने पर मूल्य वापस भी नहीं किया जाता है।
  5. मांग में उतार-चढ़ाव (Fluctuation in Demand)- सेवाओं की मांग किसी विशेष मौसम या आवश्यकता या किसी विशेष समय पर होती है। अन्य समयों में उनकी मांग नहीं होती है। मांग में परिवर्तन मौसमी हो सकता है या कभी-कभी साप्ताहिक, दिन या घंटे हो सकता है।
  6. जांच परख कठिन (Difficult to Test)- सेवा अमूर्त होती है, अतः इसका नमूना भी नहीं होता है। इसका प्रमाणीकरण भी संभव नहीं है। इसे उपभोग के समय ही निष्पादित (उत्पादित) किया जाता है। फलतः सेवा के उपयोग की किस्म की जांच परख करना कठिन ही नहीं असंभव भी है।
  7. व्यक्तिगत कौशल (Personal Skills)- सेवा की किस्म, सेवा प्रदान करने वाले व्यक्ति की व्यक्तिगत कौशल से सर्वाधिक रूप से प्रभावित होता है। सेवा प्रदान करने वाला ज्यों ज्यों अपने कौशल में सुधार करेगा त्यों त्यों उसकी सेवा की क्रिया में सुधार होता चला जाएगा।
  8. संसाधनों का उपयोग (Use of Resources)- सेवा के उत्पादन एवं प्रस्तुत करने में प्रायः कुछ संसाधनों का उपयोग भी किया जाता है। सामग्री, यंत्र, उपकरण, ऊर्जा, शारीरिक श्रम, आदि का प्रयोग सेवा के उत्पादन एवं प्रस्तुतीकरण में उपयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए, हवाई परिवहन सेवा प्रदान करने हेतु हवाई जहाज का उपयोग करना पड़ता है।


भारत में सेवा विपणन के बढ़ने के कारण (Reasons of Growth Service Marketing in India)- भारत में सेवा वितरण के बढ़ने के निम्नलिखित कारण है-


  1. कम पूंजी की आवश्यकता (Low Capital Requirement)- सेवाओं पर आधारित व्यवसाय की लागत उस योजना से कम है जो उत्पाद आधारित है। विनिर्माण और बिक्री उत्पादों को एक विशाल निवेश की आवश्यकता होती है, जिसे सेवा क्षेत्र में टाला जा सकता है और उत्पाद आधारित व्यवसाय की तुलना में बहुत छोटे समूह द्वारा सेवा विपणन की शुरुआत की जा सकती है।
  2. कम जोखिम (Less Risk)- उत्पाद आधारित व्यवसायों में जोखिम बहुत अधिक है क्योंकि यह कहना बहुत मुश्किल है कि जिस उत्पाद को कंपनी लॉन्च कर रही है उसे उच्च बिक्री मिलेगी। लेकिन सेवा के मामले में, लोग इसे कोशिश करने में अधिक सहज हैं। कौशल-आधारित व्यवसायों में हमेशा उत्पाद बेचने की तुलना में कम जोखिम होता है।
  3. लचीलापन (Flexibility)- उत्पाद की तुलना में सेवा में बदलाव करना आसान है। सेवा आधारित विपणन के संदर्भ में कोई भी, कहीं से भी काम कर सकता है, लेकिन उत्पाद आधारित विपणन योजना का स्थान तय होता है। उत्पाद आधारित विपणन बहुत कम लचीलापन होता है, जबकि फीडबैक के आधार पर सेवाओं में बदलाव आसानी से किया जा सकता है। अगली बार इसे कैसे करना है, यह हमारे हाथ में होता है।
  4. कानूनी औपचारकताएं (Legal Formalities)- विनिर्माण का कार्य शुरू करने से पहले बहुत सारे कानूनी औपचारिकताओं को पूरी करनी पड़ती है। जबकि सेवाओं के संबंध में बहुत कम ही कानूनी औपचारिकताओं को पूरे करने पड़ते है।
  5. तेजी से शुरुआत (Fast to launch)- विनिर्माण या उत्पाद संबंधी कार्यों को शुरू करने के लिए, इस प्रकार के कार्यों के प्रयुक्त संसाधनों को इकट्ठा करना पड़ता है जिसके कारण विपणन कार्यों के शुरुआत में समय लगता है। जबकि सेवाओं से संबंधित विपणन कार्यो को तेजी से, कम समय तथा कम लागत में शुरू किया जा सकता है।

Tuesday, October 27, 2020

हेजिंग (Hedging) क्या है ? हेजिंग की विशेषताएं बताइए। What is Hedging ? State the Characteristics of Hedging.

प्रश्न: हेजिंग क्या है? हेजिंग की विशेषताएं बताइए।

(What is Hedging ? State the Characteristics of Hedging.)


उत्तर: हेजिंग (Hedging)- हेजिंग आर्थिक जोखिम के विरुद्ध सुरक्षा का एक रूप है जिसके अंतर्गत दो परस्पर विरोधी लेन-देनों से मूल्य में परिवर्तन उत्पन्न होने वाली जोखिम को दूर करने के लिए किए जाते हैं। हेजिंग दो भिन्न-भिन्न बाजारों में साथ साथ किए जाने वाला विरोधी लें देन है अर्थात यदि एक प्रकार के सौदे पर होने वाली हानि के खतरे को दूर करने का प्रयत्न, एक बराबर और विपरीत प्रकार के सौदे को एक साथ कार्यान्वित करने के लिए किया जाए ताकि एक सौदे की हानि दूसरे सौदे के लाभ से पूरी हो सके तो इस कार्य को हेजिंग (Hedging) कहेंगे।

     दूसरे शब्दों में , हेजिंग अथवा सुरक्षात्मक सौदे से आशय ऐसे सौदे से है जो मूल्यों में होने वाले उतार-चढ़ावों की जोखिम दूर करने की दृष्टि से किए जाते हैं। इसके अंतर्गत यदि कोई व्यापारी भविष्य में किसी वस्तु को खरीदने का सौदा करता है तो वह मूल्य परिवर्तन की हानि से बचने के लिए तुरंत उतनी ही मात्रा में उसी तिथि के लिए प्रतिकूल सौदा अर्थात विक्रय का सौदा कर लेता है। इस प्रकार यह एक प्रकार से बीमा है जिसका उपयोग भावी जोखिम से बचने के लिए किया जाता है।


हेजिंग की विशेषताएं (हेजिंग की विशेषताएं) - उपयुक्त आशय से निम्नलिखित विशेषताएं स्पष्ट होती हैं-

(1) इसमें एक ही समय में दो उपलब्ध होने के साथ होते हैं,

(2) दोनों सौदों का परस्पर होना अर्थात एक क्रय का दूसरा विक्रय का होना,

(3) दोनों उपलब्धता समान मात्रा के होते हैं,

(4) सौदों का उद्देश्य हानि से सुरक्षा करना और सामान्य व्यापारिक लाभ को सुरक्षित करना है।


Monday, October 26, 2020

प्रबंध के क्षेत्र में हेनरी फेयोल तथा टेलर के योगदानों का तुलनात्मक अध्ययन कीजिए। By RD Gupta

प्रश्न: प्रबंध के क्षेत्र में हेनरी फेयोल तथा टेलर के योगदानों का तुलनात्मक अध्ययन कीजिए।

उत्तर: समानताएं (Points of Similarity)- टेलर तथा फेयोल दोनों ही उच्च श्रेणी के प्रबंध विशेषज्ञ थे। अतः उनके कार्यों में पर्याप्त समानताएं विद्यमान है जो कि निम्न है:


  1. टेलर तथा फेयोल दोनों ही प्रबंध की दशाओं को सुधारना चाहते थे। इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दोनों ने ही कार्य किया।
  2. दोनों ही प्रबंध को विवेकपूर्ण तथा व्यवस्थित आधार प्रदान करना चाहते थे। इसके लिए टेलर ने "वैज्ञानिक प्रबंध" का आधार प्रदान किया तथा फेयोल ने "प्रशासन के सामान्य सिद्धांत" का उद्गम एवं विकास किया।
  3. दोनों ही अपने जीवन में प्रबंधक के पदों पर कार्य कर चुके थे तथा अपने अनुभवों की छाप प्रबंधन के क्षेत्र में लगाई। दोनों ने हीं अपने व्यावहारिक अनुभवों के आधार पर वैज्ञानिक प्रबंध के विकास में अमूल्य सहयोग प्रदान किया।
  4. दोनों ने ही प्रबंध के क्षेत्र में मानव तत्व के महत्व को पहचाना  उन दोनों का यह दृढ़ विश्वास था कि जब तक मानव के साथ विभिन्न स्तरों पर मानवीय व्यवहार नहीं किया जाएगा, तब तक औद्योगिक अथवा व्यवसायिक सफलता की कामना करना सर्वथा निरर्थक होगा।
  5. दोनों ने ही कुशल प्रबंधन हेतु "प्रबंधन के सिद्धांतों" का प्रतिपादन किया तथा उनके पालन करने एवं उनका विकास करने पर बल दिया।
  6. दोनों ने ही प्रबंधक के तकनीकी व पैसा पहलू पर बल दिया।
  7. दोनों ने ही प्रबंध के क्षेत्र में नियोजन पर बल दिया।
  8. दोनों की ही अवधारणा थी कि प्रबंध एक "अर्जित प्रतिभा" है, "जन्मजात नहीं"। अतः इसे विकसित किया जाना चाहिए।


असमानताएं (Points of Dissimilarity or Difference)- टेलर तथा  दोनों उच्च श्रेणी के प्रबंध विद्वान थे। इन दोनों विशेषज्ञों के उपर्युक्त समानताओं के होते हुए भी अनेक समानताएं विद्यमान है, जो कि मुख्य रूप से निम्न है:


  1. टेलर ने अपना कार्य प्रबंध के स्तर की निम्नतम श्रेणी से शुरू किया। इसके कारण उनके अध्ययन का केंद्र बिंदु 'श्रमिक' था। इसके विपरीत फेयोल ने अपना कार्य प्रबंध के स्तर की उच्चतम श्रेणी से प्रारंभ किया। इसके कारण उसके अध्ययन का केंद्र बिंदु 'प्रबंधक' था। उन्होंने समन्वय, निर्देशन की एकता, तथा सहयोग जैसे प्रबंध के सिद्धांत पर विशेष रूप से बल दिया।
  2. टेलर ने श्रमिकों की कार्यकुशलता के बढ़ाने पर बल दिया तथा इसी क्षेत्र में अपने विभिन्न प्रयोग (जैसे- समय अध्ययन, गति अध्ययन, तथा थकान अध्ययन) किए। इसके विपरीत, फेयोल का दृष्टिकोण काफी विस्तृत होने के कारण उन्होंने प्रबंध के ऐसे सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जिन्हें प्रशासन के विभिन्न क्षेत्रों में सरलता से लागू किया जा सकता है। अधिकांश विद्वानों की सम्मति में टेलर "कुशलता विशेषज्ञ" थे तथा फेयोल "प्रशासन विशेषज्ञ" थे।
  3. टेलर ने कारखाने के प्रबंध तथा उत्पादन के इंजीनियरिंग पक्ष (जैसे- यंत्रों एवं औजारों का प्रमाणीकरण) की ओर विशेष रूप से ध्यान दिया। इसके विपरीत, फेयोल ने प्रबंध के कार्यों की ओर विशेष रुप से ध्यान दिया।
  4. टेलर की विचारधारा सैद्धांतिक है, जबकि फेयोल की विचारधारा व्यवहारिक है।
  5. टेलर वैज्ञानिक प्रबंध स्कूल के समर्थक थे, जबकि फेयोल व्यवहारवादी स्कूल के समर्थक थे।
  6. टेलर ने व्यक्ति विशेष पर बल दिया, जबकि फेयोल ने व्यक्तियों के समूह पर बल दिया।
  7. टेलर ने क्रियात्मक संगठन द्वारा श्रमिकों की कार्यकुशलता बढ़ाने पर बल दिया, जबकि फेयोल ने प्रशासन के सिद्धांतों द्वारा प्रशासनिक क्षमता को बढ़ाने पर बल दिया।
  8. नई परिस्थितियों के प्रभाव में टेलरवाद में बहुत परिवर्तन हो गया है किंतु फेयोल के सिद्धांत आज भी उतने ही उपयोगी एवं उपयुक्त हैं।


निष्कर्ष (Conclusion)- प्रबंध विद्वान विशेषज्ञ श्री उर्विक ने टेलर तथा फेयोल इन दोनों विद्वानों के योगदान का तुलनात्मक विवरण इन शब्दों में प्रस्तुत किया- "टेलर तथा फेयोल दोनों के ही कार्य एक दूसरे के पूरक थे। इन दोनों ने ही यह अनुभव किया कि प्रबंध के प्रत्येक स्तर पर कर्मचारियों एवं उनके प्रबंध की समस्या औद्योगिक असफलता की कुंजी है। दोनों ने ही इस समस्या के समाधान के लिए वैज्ञानिक तरीकों का प्रयोग किया है। यद्यपि टेलर ने मुख्यतः औद्योगिक प्रबंध के क्रम में नीचे से ऊपर की ओर क्रियात्मक स्तर पर कार्य किया, जबकि फेयोल ने जनरल मैनेजर के पद पर ध्यान केंद्रित करके ऊपर से नीचे की ओर कार्य करने पर जोर दिया। वस्तुतः यह अंतर उनके बहुत भिन्न व्यवसाय क्रमों का प्रतिबिंब मात्र था।"



Sunday, October 25, 2020

खाताबही (Ledger) से आप क्या समझते हैं ? खाताबही में खतौनी करने के क्या नियम है ? खाताबही में खोले गए विभिन्न खातों के शेष कैसे निकाला जाता है एवं उन्हें बंद कैसे किया जाता है ?

प्रश्न: खाताबही से आप क्या समझते हैं ? खाताबही में खतौनी करने के क्या नियम है ? खाताबही में खोले गए विभिन्न खातों के शेष कैसे निकाला जाता है एवं उन्हें बंद कैसे किया जाता है ?


उत्तर: खाताबही (Ledger)-
जर्नल और सहायक बहियों में लेन-देनों की प्रविष्टियां करने के पश्चात उनका वर्गीकरण किया जाता है। यह वर्गीकरण खाताबही में होता है। इस कारण वर्गीकरण को खाताबही कहते हैं। अतः जिस पुस्तक में समस्त व्यापारिक लेन-देनों को उनकी प्रकृति के अनुसार अलग-अलग मदों में वर्गीकृत कर प्रत्येक मद को एक खाते का रूप दिया जाता है, उसे खाताबही (Ledger) कहते हैं। इसे अंतिम लेखे की बही (Book of Final Entry) भी कहा जाता है क्योंकि जर्नल तथा सहायक पुस्तकों में लिखे गए समस्त लेन-देन अंततः खाताबही में लिखे जाते हैं जिससे प्रत्येक लेन-देन की द्वी-प्रविष्टि पूरी हो जाती है।


परिभाषाएं (Definitions)- 

  1. बाटलीबॉय के अनुसार, "यह वह पुस्तक है, जिसमें सभी व्यापारिक लेन-देन अंततः उचित रूप में, संबंधित खातों के अंतर्गत, श्रेणी विभाजित करके उतारे जाते हैं।"
  2. विलियम पिकिल्स के अनुसार, "हिसाब-किताब की पुस्तकों में खाताबही सबसे महत्वपूर्ण है और जो लेखें रोजनमचे या इसकी सहायक बहियों में किए जाते हैं, उनका निर्दिष्ट स्थान यह पुस्तक है।"
  3. एल.सी.कॉपर के अनुसार, "वह पुस्तक जिसमें एक व्यापारी के व्यवहारों को एक वर्गीकृत स्थाई रूप में विधिवत लिखा जाता है, खाताबही कहलाती है।"


निष्कर्ष (Conclusion)- खाताबही की उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के पश्चात इसकी एक सरल परिभाषा इन शब्दों में दी जा सकती है, "खाताबही हिसाब-किताब की वह पुस्तक है जिसमें सभी व्यापारिक लेन-देनों को उनके स्वभाव के अनुसार, समूहबद्ध करके लिखा जाता है। प्रत्येक खाते को दो भागों में विभाजित किया जाता है। खाते के बाएं भाग में डेबिट के लेन-देन और दाएं भाग में क्रेडिट के लेन-देन लिखे जाते हैं।"


खाताबही की आवश्यकता व महत्व (Need & Importance of Ledger Book)-

  1. सूचना प्राप्त करने की दृष्टि से खाता-बही को लाभदायक माना गया है क्योंकि इससे समय व श्रम की बचत होती है।
  2. खाता-बही से इस बात की जानकारी होती है कि व्यापारी को किस व्यक्ति को कितना देना है और किससे कितना लेना।
  3. खाता-बही से सम्पत्तियों एवं पूँजी व दायित्वों की स्थिति के संबंध में भी जानकारी प्राप्त होती है।
  4. खाता-बही से व्यक्तिगत खाता, वास्तविक खाता तथा नाममात्र खाता से संबंधित सभी खातों की अलग-अलग एवं पूर्व जानकारी प्राप्त होती है।
  5. न्यायालय में वित्तीय विवादों के संबंध में खाता-बही प्रमाण का कार्य करती है।
  6. खाता-बही से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर व्यवसाय की उन्नति के लिए भावी योजनाओं के निर्माण में सहायक मिलती है।


खाताबही में खतौनी करने के नियम (Rules of Posting in Ledger Book)- 

  1. जर्नल में जितने खातों का नाम होता है, उन सभी का खाता खोला जाता है।
  2. खातों के नाम, खाता-बही के पृष्ठों के मध्य में, बड़े और स्पष्ट अंतरों में लिखा जाता है।
  3. एक नाम से संबंधित सभी लेखे एक ही जगह लिखा जाता है।
  4. जर्नल में किए गए लेखे को खाते में सिलसिलेवार ढंग से अर्थात तिथिवार लिखा जाता है।
  5. जिस नाम का खाता खोला जाता है उस नाम को उस खाते के Dr. या Cr. पक्ष में कभी नहीं लिखा जाता है। उसके Same Side Opposite Name लिखा जाता है।
  6. नाम पक्ष (Debit Side) के खाते के पहले To और जमा पक्ष (Credit Side) के खाते के पहले By शब्द लिखा जाता है।


खातों की शेष निकालना तथा उन्हें बंद करना (Balancing and Closing of Accounts)- खाताबही में खोले गए विभिन्न खातों के शेष निकालने तथा उन्हें बंद करने के नियम निम्नलिखित हैं-

(1) व्यक्तिगत खाता/दायित्व एवं पूँजी खाता के शेष निकालने की विधि- इन खातों के रखने का उद्देश्य यह है कि हम यह जान सकें कि किससे कितना रुपया लेना है और किसे कितना रुपया देना है। अतः इस प्रकार के खाते के डेबिट पक्ष की राशि का जोड़ बड़ा रहने पर खाते के क्रेडिट पक्ष में By Balance c/d लिखकर अंतर की राशि लिख देते हैं। फिर दोनों पक्षों का जोड़ लिख दिया जाता है, इससे खाता बंद हो जाता है। इसके बाद डेबिट पक्ष की ओर जोड़ वाली पंक्ति के बाद अगली पंक्ति में To Balance b/d लिखकर वही अंतर वाली राशि लिख देते हैं। तारीख वाले खाने में जिस तारीख को खाते बंद किए गए हैं, उसकी अगली तारीख लिखी जाती है।

          इसके विपरीत, यदि खाते का क्रेडिट शेष हो तो खाते के डेबिट पक्ष में To Balance c/d लिखते हैं और राशि वाले खाने में अंतर की राशि लिखी जाती है। फिर दोनों पक्षों का योग कर लिया जाता है। जोड़ की क्रिया के बाद अगली पंक्ति में खाते के क्रेडिट पक्ष में By Balance b/d लिखा जाता है और राशि वाले खाने में अंतर वाली राशि ही लिखी जाती है।

(2) वास्तविक खाता या सम्पत्ति खाता के शेष निकालने की विधि- वास्तविक खातों के रखने का उद्देश्य किसी विशेष सम्पत्ति का अपने पास शेष ज्ञात करना है। अतः ये खाते व्यक्तिगत खातों की तरह ही बंद किए जाते हैं। रोकड़ खाता, मशीन खाता, फर्नीचर खाता, भवन खाता इस तरह के खातों के उदाहरण हैं। ध्यान रहे कि सम्पत्ति या वास्तविक खातों का शेष हमेशा नाम शेष (Debit Balance) होता है। माल से संबंधित खातों (जैसे क्रय खाता, विक्रय खाता, क्रय वापसी खाता, विक्रय वापसी खाता) के शेष को व्यापार खाते (Trading A/c) में हस्तांतरित किया जाता है।

(3) अवास्तविक खाते या आगम एवं व्यय खाते के शेष निकालने की विधि- अवास्तविक खाते आय-व्यय से संबंधित होते हैं। इन खातों के रखने का उद्देश्य विभिन्न मदों से होने वाली आय और व्यय की राशियों को ज्ञात कर व्यापार का लाभ-हानि ज्ञात करना होता है। अतः इन खातों के शेषों को लाभ-हानि खातों में हस्तांतरित करने के लिए जो प्रविष्टियाँ की जाती हैं उन्हें अंतिम प्रविष्टियाँ कहा जाता है। अतः इन खातों में शेष निकालने में विवरण के खाते में Balance c/d शब्द ना लिखकर "Profit & Loss Account Transfer" लिखते हैं। खर्चे से संबंधित खातों का शेष नाम शेष (Debit Balance) तथा आय से संबंधित खातों का शेष जमा शेष (Credit Balance) हुआ करता है। 

Monday, October 19, 2020

Company and it's Characteristics by RD Gupta

प्रश्न: कंपनी से आप क्या समझते हैं ? कंपनी की विशेषताएं बताइए।

( What do you understand by Company? Describe the features of the Company.)

उत्तर: कंपनी (Company)- Company शब्द की उत्पति लेटिन भाषा के एक शब्द "Companies" से हुई थी। Companies शब्द की यदि हम बात करें तो यह दो शब्द Com और Panies से मिलकर बना हुआ है। इसमें प्रथम शब्द 'Com' का अर्थ 'साथ-साथ' तथा 'Panies' का अर्थ 'रोटी' से लगाया जाता है| इस तरह से यदि हम लेटिन भाषा के अनुसार Companies का अर्थ निकालेंगे तो इसका मूल अर्थ 'साथ साथ भोजन करने' से लगाया जा सकता है। कंपनी शब्द की उत्पति के शुरूआती दिनों की यदि हम बात करें तो कंपनी शब्द का उच्चारण व्यक्तियों के उस समूह के लिए किया जाता था, जो एक साथ बैठकर भोजन किया करते थे और उस वक्त भोजन करते समय समूह के लोगों के बीच व्यवसाय अर्थात बिज़नेस या काम-काज की भी बातें हुआ करती थी, वहीँ से इस Company नामक शब्द की उत्पति हुई थी। लेकिन वर्तमान में कंपनी का अर्थ एक ऐसे संगठन से लगाया जाता है जिसमे संयुक्त रूप से पूँजी विद्यमान होती है, अर्थात कुछ व्यक्तियों द्वारा संयुक्त रूप से पूंजी को समायोजित कर एक संगठन का निर्माण किया जाता है।

          दूसरे शब्दों में, कम्पनी का आशय कम्पनी अधिनियम के अधीन निर्मित एक 'कृत्रिम व्यक्ति' से है, जिसका अपने सदस्यों से पृथक अस्तित्व एवं अविच्छिन्न उत्तराधिकार होता है। साधारणतः ऐसी कम्पनी का निर्माण किसी विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के लिए होता है और जिसकी एक सार्वमुद्रा (common seal) होती है।


  • परिभाषाएं (Definitions)-

(1) प्रोफेसर हैने के अनुसार, "कंपनी राजनियम द्वारा निर्मित एक कृत्रिम व्यक्ति है। यह एक पृथक वैधानिक अस्तित्व रखती है। इसे अविच्छिन्न उत्तराधिकार प्राप्त है और इसकी एक सार्वमुद्रा (Common seal) होती है।"

(2) किम्बाल एवं किम्बाल के अनुसार, "कंपनी स्वभाव से ही एक ऐसा कृत्रिम व्यक्ति है, जो किसी विशिष्ट उद्देश्यों के लिए राजनियम द्वारा अधिकृत या स्थापित किया जाता है।"

(3) भारतीय कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 2(20) के अनुसार, "कंपनी का अर्थ ऐसी कंपनी से है जिसका निगमन इस अधिनियम या किसी पूर्व कंपनी अधिनियम के अंतर्गत हुआ हो।"


  • निष्कर्ष (Conclusion)-

ऊपर दी हुई कंपनी की विभिन्न परिभाषाओं का अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि, "कंपनी एक वैधानिक व्यक्ति है जिसका निर्माण एवं पंजीयन कंपनी अधिनियम के अंतर्गत किसी विशेष उद्देश्य से होता है, जिसका दायित्व साधारणतया सीमित और अस्तित्व उसके सदस्यों से अलग होता है तथा इसकी एक सामान्य मुद्रा होती है।"


  • कंपनी की विशेषताएं (Characteristics of a Company)- कम्पनी की कुछ आधारभूत विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

(1) विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम व्यक्ति (An artificial person created by law) - कम्पनी विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम, अदृश्य, काल्पनिक एवं अमूर्त व्यक्ति है। कम्पनी को विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम व्यक्ति इसलिए कहा जाता है कि एक ओर तो इसका जन्म अप्राकृतिक तरीके यानी कि विधान द्वारा होता है तथा दूसरी ओर प्राकृतिक व्यक्ति की तरह इसके अधिकार एवं दायित्व होते हैं। किसी व्यापार आदि कार्यों में जितने अधिकारों का प्रयोग वास्तविक व्यक्ति कर सकता है और जितने उत्तरदायित्व एक वास्तविक व्यक्ति के होते हैं, उतने ही कम्पनी के भी होते हैं।

(2) पृथक वैधानिक अस्तित्व (Separate legal entity)- कम्पनी की दूसरी विशेषता यह है कि इसका अपने सदस्यों से पृथक वैधानिक अस्तित्व होता है, जिसके कारण कंपनी अपने सदस्यों से अलग होती है। साझेदारी में साझेदारी फर्म एवं साझेदारों का अस्तित्व एक माना जाता है, परंतु कंपनी के संबंध में ऐसा नहीं होता है। इसका कारण यह है कि कम्पनी स्वयं विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम व्यक्ति होने की वजह से कम्पनी द्वारा किये गये कार्यों के लिए कम्पनी स्वयं ही उत्तरदायी होती है और सदस्यों द्वारा किये गये कार्यों के लिए नहीं होती है। यदि कंपनी द्वारा कोई दावा किया जाए या कंपनी पर कोई दावा किया जाए तो इसे कंपनी के सदस्यों द्वारा या कंपनी के सदस्यों पर चलाया हुआ दावा नहीं समझा जाएगा।

(3) शाश्वत (अविच्छिन्न) उत्तराधिकार (Perpetual succession)- ”समामेलन की तिथि से ही कम्पनी शाश्वत उत्तराधिकार वाली हो जाती है।" कम्पनी के अंश हस्तान्तरणीय होने के कारण, चाहे उसके सभी सदस्य, अंशधारी, भले ही क्यों न बदल जायें, कम्पनी का अस्तित्व यथावत बना रहता है। कम्पनी के सदस्यों की मृत्यु, पागलपन अथवा अंश-हस्तान्तरण जैसी घटनाएँ भी कम्पनी के अस्तित्व एवं उसके जीवन पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती। अपितु उसका मूल अस्तित्व यथावत बना रहता है।

(4) सार्वमुद्रा (Common seal)- सार्वमुद्रा (common seal) मजबूत धातु पर इस प्रकार खुदी हुई मुद्रा है जिसमें कम्पनी का नाम लिखा होता है। कंपनी द्वारा निर्गमित किए हुए प्रपत्र व बिल, आदि पर इसे लगाया जाता है। जहां भी कम्पनी को हस्ताक्षर करने होते हैं, वहाँ कम्पनी के संचालक सार्वमुद्रा का प्रयोग करते हैं। सार्वमुद्रा प्रयोग किये बिना कम्पनी को किसी कार्य के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। अतः हर कम्पनी के पास अपनी एक सार्वमुद्रा का होना अनिवार्य है।

(5) लाभ के लिए ऐच्छिक पंजीकृत संघ (Registered voluntary association for profit)- कम्पनी व्यक्तियों का एक ऐच्छिक संघ है, जिसका मूल प्रयोजन लाभार्जन होता है। व्यक्ति स्वेच्छा से कम्पनी की सदस्यता स्वीकार करता है, किसी के दबाब में आकर नहीं। लाभ के लिए बनाये गये ऐसे ऐच्छिक संघ का पंजीयन भी आवश्यक होता है। पंजीयन कंपनी विधान के अधीन करवाया जाता है।

(6) लोकतांत्रिक प्रबन्ध (Democratic management)- कम्पनी स्वयं एक कृत्रिम व्यक्ति है, जो स्वयं अपना प्रबन्ध नहीं कर सकती है। ऐसी स्थिति में सामूहिक उद्देश्यों की प्राप्ति लोकतांत्रिक प्रबन्ध व्यवस्था द्वारा की जाती है। कम्पनी के सदस्य एवं अंशधारी स्वयं कम्पनी का प्रबंध नहीं कर सकते, क्योंकि वे बिखरे हुए होते हैं, उनके अंश क्रय का मुख्य प्रयोजन लाभांश अर्जित करना होता है, न कि कम्पनी को चलाना। इसे प्रतिनिधि प्रबंध के नाम से भी पुकारा जाता है।

(7) सीमित दायित्व (Limited liabilities)- व्यावसायिक स्वामित्व के विभिन्न प्रारूपों में कम्पनी के रूप में जो प्रारूप हैं, वहीं उसके सदस्यों का दायित्व अपने हिस्से (अंश) की सीमा तक सीमित हो सकता है। यदि किसी कम्पनी के सदस्यों ने अपने द्वारा किये गये अंशों की पूरी राशि कम्पनी को चुका दी है तो वे अतिरिक्त धनराशि के लिए बाध्य नहीं किये जा सकते, चाहे कम्पनी को अपने दायित्व चुकाने के लिए कितने ही धन की आवश्यकता क्यों ना हो।

(8) कार्यक्षेत्र की सीमाएँ (Limitation of working area)- प्रत्येक संयुक्त पूँजीवाली कम्पनी अपने कार्य में कम्पनी अधिनियम, अपने पार्षद सीमा-नियम तथा पार्षद अंतर्नियम से पूर्णतया बंधी हुई है। इनमें वर्णित व्यवस्थाओं के बाहर जाकर वह कोई भी कार्य नहीं कर सकती है।

(9) हस्तान्तरणीय अंश (Transferable shares)- किसी भी कम्पनी का कोई भी अंशधारी किसी अन्य व्यक्ति को एक स्वतंत्र अधिकार के रूप में अंशों का हस्तान्तरण कर सकता है और इस प्रकार वह स्वयं कम्पनी की सदस्यता से मुक्त हो सकता है।

(10) अभियोग चलाने का अधिकार (Right to prosecute)- कम्पनी अन्य पक्षकारों पर तथा अन्य पक्षकार कम्पनी पर वाद भी चला सकती है। इतना ही नहीं कम्पनी अपने सदस्यों पर तथा सदस्य अपनी कम्पनी पर भी वाद प्रस्तुत करने का अधिकार रखती है।

(11) सदस्य संख्या (Number of members)- सार्वजनिक कम्पनियों में कम से कम 7 सदस्य होना अनिवार्य है। इसमें अधिकतम सदस्यों की कोई सीमा नहीं होती है। जबकि निजी कम्पनी में कम से कम 2 तथा अधिकतम 200 व्यक्तियों तक सदस्य हो सकते हैं।

(12) कम्पनी का समापन (Winding up of a company)- कम्पनी का जन्म राजनियम के द्वारा होता है और जीवन पर्यन्त राजनियम के अनुरूप ही कार्य करती है। कम्पनी का समापन भी राजनियम के द्वारा ही होता है। अतः कहा जाता है कि किसी भी कम्पनी का समापन राजनियम के बिना नहीं हो सकता है।

Friday, July 24, 2020

स्वेट समता अंश (Sweat Equity Share) से आप क्या समझते हैं ?What do you understand by 'Sweat Equity Share' ?


प्रश्न: स्वेट समता अंश (Sweat Equity Share) से आप क्या समझते हैं ?What do you understand by 'Sweat Equity Share' ?

उत्तर: स्वेट समता अंश (Sweat Equity Share)- स्वेट समता अंश से आशय ऐसे अंशों से है जो कंपनी कटौती पर अथवा नकदी के अतिरिक्त अन्य प्रतिफल हेतु बौद्धिक परिसंपत्ति के प्रयोग के अधिकार के लिए अपने कर्मचारियों अथवा संचालकों को निर्गमित करती है। कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 2(88) के अनुसार कंपनी स्वेट समता अंश तभी निर्गमित कर सकती है, जब निम्नलिखित शर्तें पूरी कर दी गई हो-
  1. कंपनी के सामान्य सभा में विशेष प्रस्ताव पास होनी चाहिए। कंपनी को समामेलित हुए एक वर्ष से अधिक समय हो चुका हो। 
  1. विशेष प्रस्ताव में अंशों की संख्या, वर्तमान बाजार मूल्य, प्रतिफल (यदि कोई हो) तथा संचालकों अथवा कर्मचारियों के वर्ग का उल्लेख होना चाहिए, जिन्हें यह अंश निर्गमित किए जाने हैं। 
  1. स्वेट समता अंश जो की मान्यता प्राप्त स्कंध विनिमय बाजार पर सूचीबद्ध हो, को SEBI के नियमानुसार निर्गमित किया जाना चाहिए।                                               

Saturday, July 18, 2020

अंशों के न्यूनतम अभिदान (Under Subscription) से आप क्या समझते हैं ? What do you understand by Under Subscription of shares ?

प्रश्न: अंशों के न्यूनतम अभिदान (Under Subscription) से आप क्या समझते हैं ?What do you understand by Under Subscription of shares ?


उत्तर: अंशों का न्यून अभिदान (Under Subscription of Shares)- भारतीय कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 39 के अनुसार, जब कंपनी द्वारा निर्गमित अंशों की संख्या से कम अंशों की संख्या क्रय करने हेतु आवेदन-पत्र प्राप्त होते हैं तो इस स्थिति को अल्प-अभिदान अथवा न्यून-अभिदान (Under Subscription) कहते हैं। ऐसी स्थिति में प्रायः सभी आवेदन-पत्र स्वीकार कर लिए जाते हैं तथा लेखे आवेदित संख्या के आधार पर ही किए जाते हैं किंतु इस संबंध में यह आवश्यक ध्यान रखना चाहिए कि जनता द्वारा मांगे गए अंशों पर न्यूनतम अभिदान (Minimum Subscription) की राशि से कम राशि प्राप्त नहीं होनी चाहिए (SEBI के अनुसार न्यूनतम अभिदान की राशि कुल निर्गमन राशि का 90% होना चाहिए) अन्यथा कंपनी अंशों का आवंटन नहीं कर सकती तथा आवेदनों पर प्राप्त राशि आवेदकों को वापस करनी होगी।

अंशों के बट्टे पर निर्गमन से आप क्या समझते हैं ? अंशों के कटौती पर निर्गमन से संबंधित विभिन्न शर्ते बताइए। What is meant by "issue of shares at discount" ? State the rules regarding issue of share on discount.

प्रश्न: अंशों के बट्टे पर निर्गमन से आप क्या समझते हैं ? अंशों के कटौती पर निर्गमन से संबंधित विभिन्न शर्ते बताइए।What is meant by "issue of shares at discount" ? State the rules regarding issue of share on discount.


उत्तर: अंशों का कटौती पर निर्गमन (Issue of Shares at Discount)- यदि अंशों को अंकित मूल्य से कम मूल्य पर निर्गमित किया जाता है तो अंशों के ऐसे निर्गमन को 'अंशों का बट्टे (कटौती) पर निर्गमन' कहते हैं। यदि ₹ 10 का अंश ₹ 9 में निर्गमित किया जाए तो ₹ 1 बट्टा कहलाएगा।
शर्तें (Conditions)- कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 53 के अनुसार निम्नलिखित शर्तें पूरी होने पर, कंपनी अपने अंशों का निर्गमन बट्टे पर कर सकती है-
  1. अंश ऐसी श्रेणी के होने चाहिए जो पहले निर्गमित किए जा चुके हो अर्थात नए अंश कटौती पर निर्गमित नहीं किए जा सकते।
  1. कटौती पर अंशों का निर्गमन करने के संबंध में कंपनी की साधारण सभा में एक प्रस्ताव पारित होना चाहिए और केंद्रीय सरकार से स्वीकृति प्राप्त की जानी चाहिए।
  1. कटौती दर अंशों के अंकित मूल्य के 10% से अधिक नहीं होनी चाहिए। केंद्रीय सरकार विशेष परिस्थितियों में इस प्रतिशत में वृद्धि की अनुमति दे सकता है।
  1. कंपनी को व्यापार प्रारंभ करने का अधिकार प्राप्त होने की तिथि से कम से कम 1 वर्ष पश्चात ही कटौती पर अंशों का निर्गमन किया जा सकता है।
  1. ऐसा निर्गमन 'केंद्रीय सरकार' द्वारा अनुमोदित तिथि के 2 माह की अवधि में किया जाना चाहिए।

अतः हम कह सकते हैं कि, (i) नई कंपनी अंशों का निर्गमन बट्टे पर नहीं कर सकती है। (ii) नए वर्ग के अंश कटौती पर नहीं जारी किए जा सकते हैं।
लेखा प्रविष्टियां (Accounting Enteries)- कटौती की राशि का लेखा प्रायः आवंटन की राशि देय करने की प्रविष्टि के साथ ही किया जाता है। यह 'अंशो के निर्गमन पर बट्टा खाता' नाम करके किया जाता है। यह प्रविष्टि निम्न प्रकार की जाती है-
आवंटन की राशि देय होने पर (For Allotment Money due)-
Share Allotment A/c                              ...Dr.
Discount on Issue of Shares A/c         ....Dr.
       To share Capital A/c
(Being allotment money due.)
उक्त आवंटन राशि प्राप्त होने पर (For Above Share Allotment Money Received)
Bank A/c                                                 ....Dr.
       To Share Allotment A/c
(Being allotment money received.)
चिट्ठे में दिखाना (Presentation in the Balance Sheet)- अंशों पर कटौती एक सामान्य व्यापारी हानि न होकर एक पूंजीगत हानि है, इसीलिए इसे लाभ-हानि विवरण में न दिखाकर चिट्ठे के "समता एवं दायित्व भाग" के संचय एवं अधिक्य में से घटा कर दिखाते हैं।